शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

देश की सरकारों के दोहरे माप दंड

कानून की चाबुक के आगे किसी की कोई हैसियत नहीं। यह बात साफ तौर से कांग्रेस के महामंत्री व देश के राजनीतिक सेलीब्रेटी राहुल गांधी के मुम्बई दौरे के दरमियान खुलकर सामने आयी। जब शिवसेना की सरकाशी ढेर हो गयी और परिन्दा भी राहुल गांधी के आस पास न मार सका। परन्तु आये नागरिक की सुरक्षा की भी क्या इतनी फ्रिक देश की सरकार या प्रान्तीय सरकारों को है विचारों की स्वतन्त्रता के नाम पर स्वछन्दता से लबरेज भाषण व लेख बराबर देश के कोने कोने से उमरते रहते है।
धार्मिक सौन्दर्य और देश की एकता व अखण्डता पर बराबर हमले अपने भाषणों व कृत्यों के जरिए जाते रहते है परन्तु सरकारें गूंगी, बहरी बनी रहती है। बाबरी मस्जिद की ईट से ईट बज गयी, वर्ष 1993 में लगभग एक माह तक मुम्बई में उत्पाती शिवसैनिक व अन्य सामूहिक तौर धर्म विशेष के ऊपर जुल्म ढाते रहे उन्हे सामूहिक तौर पर जिन्दा तलाते रहे, परन्तु कानून के रखवाल ना केवल चुपचाप तमाशा देखते रहे, बल्कि उपद्रतियों के साथ शाना बशाना हिंसात्मक कृत्यों में शामिल रहे फिर यही कृत्य वर्ष 2002 में गोधरा में दोहराया गया और सुरक्षा कर्मियों को दोनां ही स्थान पर शहर राजनीतिक आकाओं से मिलती रही। उपद्रवियों को संगठित रूप से दिशा निर्देश तर सेहार के लिए जाते रहे मीडिया ने भी जलते तवे पर अपनी व्यवसायिक रोत्यिां सेंक कर सस्ती पाब्लिकसिटी हासिल की।
उड़ीसा में स्टीफन जे नीम के आस्ट्रेलयाई पादरी को उसके बच्चों समेत उसी की गाडी में फूक डाला गया कानून की धीमी रफ्तार के चलते हत्यारों को वह सजा वहीं मिले सकी जिसके वकपात्र थे।
देश में कानून सबके लिए बराबर बनाया गया है संविधान ने देश की सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये है साथ मैं सभी का कर्तव्य भी बनता है कि वह मिलकर समेत स्वार्यो से उठकर देश की उन्नति व उसके विकास के लिए काम करें और ऐसे किसी कार्य से परहेज करे जिसमें देश शार्मिन्दा हो या कमजोर हो परन्तु आज स्थित यह है कि कानून का दोहरा माप दंड है। वीआईपी सेठ व दबंग मिलकर कानून की धज्जियां उड़ाते फिरते है। आम आदमी की स्वतंत्रता पर संकट खडा कर देते है परन्तु सरकारें तमाशा देखती रहती है कारवाई करने में पूर्व वह अपने राजनीतिक वफा नुकसान का तौलती है। एक ओर शक्ति प्रदर्शन के नाम पर सन्तादल सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग कर तथा सरकारी खेजों पर आर्थिक बोझ डाल कर रैलियां करते रहते है। वहीं दूसरी ओर विरोधी दलों, कर्मचारियों या आहट व्यक्तियों को धरता प्रदर्शन पर करता पूर्वक बल प्रयोग करने से बाज नहीं आते जो कि एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रमुख अंग है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था को राजनीतिज्ञों ने अपनी बदनीमती के चलते सामन्तवादी व्यवस्था बना डाला है और राष्ट्रहित, जनहित व समाजहित सन दर किशोर कर केवल अपने व अपेज परिवार के व्यक्तिगत हितों को ही साधने में लगे है। देखिए यह प्रवृत्ति देश को कहां ले जाती है और आम आदमी का क्या हश्र होता है।

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