गुरुवार, 3 नवंबर 2011

सीरिया भी क्या लीबिया बनेगा?




इन दिनों सीरिया सुर्खियों में है। क्या यहां का जन-आंदोलन भी �बदलाव के वसंत� से उपजी पश्चिम एशिया देशों की बाकी क्रांतियों की राह पर है? कम-अज-कम अंतरराष्ट्रीय टीवी मीडिया में तो इसी बात का शोर है। जिसे दुनिया ने �अरब बसंत� कहा, उसकी शुरुआत इस साल जनवरी में ट्यूनीशिया से हुई थी। जनक्रांति की इस लहर ने पहले मिस्र में होस्नी मुबारक को सिंहासन से उतार फेंका और उसके बाद कद्दाफी की गद्दी और जान दोनों गई। बीबीसी, सीएनएन और अल-जजीरा जैसे चैनलों के मुताबिक यहां राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ भारी प्रदर्शन जारी हैं। बशर के विरोधी उन पर गैर-लोकतांत्रिक सरकार चलाने का आरोप लगा रहे हैं।
हिंसा की ज्यादातर वारदातें लेबनान और तुर्की से लगते सीरिया के सिर्फ तीन शहरों में हुई हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक नौ महीने से जारी संघर्ष में अब तक 3000 लोग मारे जा चुके हैं और 1700 घायल हुए हैं।
अंतरराष्ट्रीय खबरें आपको ये नहीं बतातीं कि तख्तापलट पर आमादा लोग आखिर हैं कौन? इस महीने सीरिया के दौरे पर जाने वाले भारतीय पत्रकारों और शिक्षाविदों के लिए भी यह जानना कठिन था। विरोध का सबसे अहम केंद्र होम्स नाम के शहर को बताया जा रहा है। राष्ट्रपति की सलाहकार बोथेनिया शाबान के मुताबिक वो खुद भी ये नहीं समझ पा रही हैं कि वहां हो क्या रहा है। लेकिन शहर के गवर्नर गाशौन अल-आल की मानें तो विद्रोह में शामिल लोग या तो प्रतिबंधित मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन के सदस्य हैं या फिर तुर्की और लेबनान की सीमा पर सक्रिय अपराधी और तस्कर हैं। गाशौन की राय में झुग्गियों और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले निचले तबके के लोग भी विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा हैं।
गवर्नर के मुताबिक, होम्स में सुन्नी मुसलमानों की बड़ी तादाद है और इन्हें विदेशी ताकतों से धन मिल रहा है। वो कौन-सी ताकतें हैं, ये उन्होंने नहीं बताया मगर उनका इशारा अमेरिका की तरफ जाता है।
होम्स में हमने रिहाइशी इलाके के बीचोंबीच तबाह हुए सेना के ट्रक को देखा। उसी रोज वो गोलीबारी का निशाना बना था। खबरों के मुताबिक, 19 सैनिक हमले में बुरी तरह घायल हुए। हम लोगों को एक नजदीक के अस्पताल का हाल दिखाने के लिए ले जाया गया। यहां हमने बाकी घायलों के साथ गोलियों से जख्मी एक छोटे बच्चे को भी देखा। उसकी मां ने बताया कि गोली तब लगी जब वो गली में घूम रहा था। एक दूसरे कमरे में इलाज करवा रहे सेना के अफसर का कहना था कि वो आम नागरिकों को बचाने की कोशिश में घायल हुआ था।
डॉक्टरों के मुताबिक, उनके अस्पताल में हर रोज ऐसे दस से पंद्रह मामले आते हैं। होम्स के गवर्नर ने ही हमें यह भी बताया कि यहां अब तक सौ से ज्यादा सैनिक जान गंवा चुके हैं। रात के वक्त इस शहर में सन्नाटा पसर जाता है। हम जब यहां से रुखसत हुए, उस वक्त भी अंधेरा था और दहशत को आप हवा में घुला हुआ महसूस कर सकते थे। हमें सेना की मौजूदगी न के बराबर नजर आई। गवर्नर ने सफाई दी कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है।
सीरिया की सरकार अमेरिका को लीबिया जैसी किसी कार्रवाई के लिए बहाना नहीं देना चाहती। लिहाजा, विद्रोहियों से निबटने में संयम बरता जा रहा है। जैसे ही हम शहर से बाहर निकले, भारी भीड़ ने हमें घेर लिया। ये लोग अल्लाह, सीरिया, असद!! चिल्ला रहे थे। जैसे ही उन्हें पता चला कि हम भारतीय हैं, नारों का सुर बदला और हमें अल्लाह, सीरिया, हिंद!! सुनाई देने लगा। सीरिया में भारत की लोकप्रियता इन दिनों बुलंदियों पर है। सुरक्षा परिषद् में सीरिया के खिलाफ प्रस्ताव की वोटिंग के दौरान भारत के गैर-हाजिर रहने को यहां समर्थन के तौर पर देखा जा रहा है।
दमिश्क, एलिपो और लातकिया के मेडिटरेनियन रिजॉर्ट में सड़कों पर लोगों ने थैंक्यू इंडिया! कहकर हमारा अभिवादन किया। दुकानदार जिद करके हमें तोहफे देने पर आमादा थे।
तो आखिर सीरिया के हालात की असलियत क्या है? ये साफ है कि होम्स और दो सीमावर्ती शहरों में हालात तनावपूर्ण हैं। यहां कई महीनों से लगातार हिंसा जारी है। लेकिन हिंसा की आग अब तक सीरिया के दूसरे शहरों में नहीं फैली है। दमिश्क और एलिपो सीरिया के दो सबसे बड़े शहर हैं और इनकी साझा आबादी सीरिया की कुल जनसंख्या की 50 फीसदी से भी ज्यादा है। यहां की गलियों में हमें राष्ट्रपति असद के लिए समर्थन साफ तौर पर नजर आया। ऐसे लोग भी उन्हें खुदमुख्तार सीरिया की पहचान के तौर पर देखते हैं, जिन्हें लगता है कि चुनाव और आर्थिक सुधारों के वायदे पर वो खरे नहीं उतरे हैं।
मध्य-पूर्व के देशों में एक के बाद एक तानाशाही सरकारों के पतन और चरमपंथियों की हिंसा के जख्मों ने सीरियाई नागरिकों को एक करने में भूमिका अदा की है। यहां के ज्यादातर लोग अमेरिका और नाटो की मदद से तख्तापलट का ख्वाब देख रहे इस्लामी कट्टरवादियों को अलग-थलग करने के लिए प्रतिबद्घ हैं। लातकिया की गलियों में शेशे (एक प्रकार का हुक्का) के कश उड़ाती नौजवान लड़कियों का भी यही कहना था कि उन्हें अमेरिकी दखल किसी सूरत में मंजूर नहीं।
अगर ऐसा है तो ऐसा ही सही। लेकिन वो शायद ये नहीं जानतीं कि एकध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अब भी अंकल सैम का सिक्का चलता है। दस साल पहले अमेरिका और सहयोगी देशों ने सद्दाम का खेल खत्म किया और अब कद्दाफी को किसी मुजरिम जैसा अंजाम बख्शा गया है। मुझे आशंका है कि दुनिया को पहला अक्षर देने वाली इस ऐतिहासिक सरजमीं का हश्र भी वही न हो जो लीबिया, यमन और मिस्र का हुआ।
इराक और लीबिया में जो इबारत खून से लिखी गई वो यहां भी लिखी जाएगी। ये सच है कि कद्दाफी क्रूर तानाशाह था। उसने अपना और अपने कुनबे का खजाना भरा। लेकिन उसने देश के काले सोने की दौलत को लीबिया के आधुनिकीकरण में लगाया था। वहां के उभरते मध्यवर्ग की मदद के लिए हाथ हमेशा आगे बढ़ाया। हर कोई जानता है उसने किस तरह युवा जोड़ों को घर और उच्च शिक्षा के लिए ब्याजमुक्त गण दिए।
सद्दाम हुसैन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। उसके राज में इराकियों ने अमीरी का जो दौर देखा, उसके बारे में बाकी दुनिया ने सुना भी नहीं था। उसके राज में डीजल और पेट्रोल सिर्फ इराकियों के लिए नहीं बल्कि पड़ोसी सीरिया और जॉर्डन के लिए भी मुफ्त था। सरकारी दुकानों में हर हैसियत के इराकी को जरूरत का सामान बिना कीमत वसूले दिया जाता था। सद्दाम का शासन हमेशा पंथनिरपेक्ष भी रहा, हालांकि असहमति को कुचलने में उसका रिकॉर्ड भी दागदार रहा। उत्तरी इराक के गांवों में सद्दाम ने हजारों कुर्द नागरिकों को मरवाया। कुवैत पर हमले के बाद शिया समुदाय के विद्रोह को उसके सैनिकों ने बेरहमी से रौंदा। राजनीति में न पड़ने की शर्त पर उसने अपने लोगों का ख्याल रखा।
पश्चिमी देशों ने उस पर अमेरिका के खिलाफ अल-कायदा से सांठगांठ का आरोप लगाया। उसे ताकत के जोर पर अपदस्थ करने के लिए घातक हथियारों की मौजूदगी को भी वजह बताया गया। बाद में अमेरिका और ब्रिटेन का ये दावा खोखला निकला। उस वक्त के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश दम भरते रहे कि सद्दाम को हटाकर उन्होंने इराक को लोकतंत्र का तोहफा दिया है। दस साल बाद भी इराक हिंसा की जद में है। तेल के इतने भंडार होने के बावजूद अब घरेलू जरूरतें पूरी करने के लिए इराक के यहां कुवैत से तेल आयात होता है।
अगर ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन, लीबिया की तरह अमेरिका राष्ट्रपति असद को अपदस्थ करने में कामयाब हो भी जाता है तो भी मध्य-पूर्व में उसकी मुश्किलें हल होने वाली नहीं हैं। लीबिया में सत्तारूढ़ काउंसिल ने शरिया कानून लागू करने का ऐलान कर दिया है। ट्यूनीशिया में कट्टरवादी इनहदा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। मिस्र की सियासी हवा भी मुस्लिम ब्रदरहुड की ओर बहती लगती है।
सत्ता परिवर्तन के बाद जिस तरह इन देशों के नए नेता कट्टरवाद की ओर मुड़ रहे हैं, उसी की प्रतिक्रिया में मध्य-पूर्व देशों में तकरीबन 80 मानवाधिकार और धर्मनिरपेक्ष संगठन आवाज उठाने को मजबूर हुए हैं।
अगर सीरिया भी चरमपंथ को चुनता है तो मुझे व्यक्तिगत तौर पर निराशा होगी। सड़कों के किनारे बने रेस्तराओं में शेशे यानी हुक्के के कश उड़ाती, आधुनिक सीरियाई महिलाएं दमिश्क या लातकिया की गलियों को ज्यादा खूबसूरत बनाती हैं। सीरिया सही मायनों में एक बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष देश है। यहां की दस फीसदी आबादी ईसाई है। दमिश्क और ऐतिहासिक शहर एलिपो के कुछ हिस्सों में आपको आर्मीनियाई, यहां तक कि यहूदी आबादी भी मिल जाएगी।

सतीश जैकब


संपर्क सूत्र : 8860139000
(लेखक पी-7 चैनल के एडीटर-इन-चीफ हैं)

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