रविवार, 5 जून 2016

आरक्षण - सामाजिक स्तिथि और पसमांदा समाज

" पहले थे हम नीम जोलाहे 
बाद में हो गए दरजी
उलट-पलट के सैयद हो गए 
ये अल्लाह की मर्जी ."

या मिल्लते इस्लामिया का अभिशाप.  यूँ कहें जुलाहा, हलालखोर, लाल बेगी, भटियारा, गोकरन, बक्खो, मीरशिकार, चिक, रंगरेज, दरजी, नट, कुंजड़ा व कबाड़िया आदि बहुत सारे शब्द हमारी सामाजिक स्तिथि को प्रकट करते हैं. भारत में 80 % पसमांदा समाज के लोग हैं जो जातियों के नाम पर पिछड़ी व दलित जातियों के रूप में जानी जाती हैं. ऊपर कहे गए शब्दों को रोज जाति के नाम पर गाली के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. वहीँ, आर्थिक स्तिथि भी अत्यधिक ख़राब है. आर्थिक स्तिथि इतनी ख़राब है कि एक वक्त का चूल्हा घर में जलने की नौबत नहीं आती है लेकिन जब सरकार जाति के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण देने की बात करती है तो मुसलमानों की उच्च जातियों के नेतागण जिनको इस्लाम में बराबरी का दर्जा लिखा-पढ़ी में तो नजर में आता है लेकिन वास्तविक धरातल पर मुसलमानों में जाति एक सच्चाई है और उच्च जातियों के लोग ऊपर लिखे गए शब्दों को गाली के रूप में इस्तेमाल करते हुए अक्सर देखे जाते हैं. आरक्षण जाति के आधार पर उच्च जाति के नेतागण नहीं देने देते हैं और तब सारे मुसलमानों की आर्थिक व सामाजिक स्तिथि को एक मानकर सभी मुसलमानों को आरक्षण देने की बात कहकर मुख्य मुद्दे से सरकार को और सभी लोगों को हटाने के काम करते हैं.जब डॉ भीम राव अम्बेडकर ने मुसलमानों को आरक्षण जाति के आधार पर देने की बात कही तो जिले के एकमात्र केन्द्रीय नेता ने अकेले जमकर विरोध किया था और जातिगत आरक्षण नहीं होने दिया था. 36 पिछड़ी जातियों के कुछ मुसलमानों को आरक्षण का लाभ मिला तो आज उस समाज में डॉक्टर, इंजिनियर व प्रशासनिक अधिकारी हुए. 
  आज पसमांदा समाज की उत्तर प्रदेश सरकार से मुख्य मांग है कि दलित व पिछड़े मुसलमानों को सामाजिक आर्थिक आधार पर 12 % आरक्षण केरल राज्य की भांति दिया जाए. अगर केरल में संविधान के आधार पर 12 % आरक्षण दिया जा सकता है तो उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं . 

- मोहम्मद वसीम राईन 

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