शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

मुलसमान अपना किरदार सुधारे

सेवानिवृत्त आई0पी0एस0 अधिकारी मंजूर अहमद को बहुजन समाजपार्टी से निष्कासित कर दिया गया हैं इससे पूर्व विगत लोकसभा चुनाव के समय उन्होंने कांग्रेस का साथ छोड़कर यह कहते हुए बहिन जी का साथ पकड़ा था कि बहिन जी सर्वसमाज की बात करती हैं और उनकी नीयत में कोई खोट उन्हें नज़र नहीं आता जबकि कांग्रेस पार्टी बाते तो मुसलमानों के हित में करती है परन्तु काम ढेला भर नहीं।
यानि मंजूर अहमद साहब ने मुसलमानों के अधिकारों के लिए कांग्रेस को खैरबाद कहकर बहुजन समाज पार्टी में बड़ी उम्मीदों के साथ कदम रखा था परन्तु बहिन जी ने उनकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।
दरअसल मुस्लिम लीडरों के साथ समस्या यह है कि उनकी स्वयं की नीयत मुसलमानों के लिए साफ नहीं रहती और ना ही उनकी स्वयं की कोई पकड़ मुस्लिम वोटों की रहती है यही कारण है कि बगैर जड़ के पौधे को जब चाहे कोई सियासी पार्टी या लीडर उखाड़ फेंकती है। आज मंजूर साहब इसके शिकार हुए, इससे पूर्व राशिद अलवी, कभी इलियास आज़मी तो कभी आज़म खाँ।
मुस्लिम लीडरों को हर सियासी पार्टी केवल उनके मुस्लिम चेहरे के रूप में इस्तेमाल करती है और मुस्लिम मतदाताओं को लुभने के लिए ही इन्हें राजनीतिक पर्दों पर स्थान दिया जाता है। मुस्लिम लीडरों की प्रारम्भिक योग्यता यह रखी जाती है कि वह मुस्लिम हितों की आवाज कभी भी पार्टी के अन्दर रहते हुए न उठाए। पार्टी की नीतियों पर कभी भी मुस्लिम हितों को प्रभावी न होने की इच्छा रखें और पार्टी का सदैव व फरमाबरदार व वफादार रहे इसके लिए चाहे वह कितना ही बुरा भला अपने लोगों के मुंह से सुने।
इतिहास गवाह है कि कभी भी किसी मुस्लिम लीडर ने मुस्लिम हितों के लिए पार्टी प्लेटफार्म से आवाज नहीं उठाई चाहे बाबरी मस्जिद प्रकरण रहा हो या शाहबानों प्रकरण। चाहे अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र का प्रश्न हो या सम्प्रदायिक दंगों का मामला। हाँ इन्हें मुस्लिम हित तब सताने लगता है जब इनका अपना हित पार्टी में कही नजर अंदाज हो रहा होता है।
प्रो0 नूर उलहसन और अब्दुल करीम छागला के ही हाथों अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को नुकसान उठाना पड़ा। शाह बानों प्रकरण में आरिफ मोहम्मद खाँ का रोल किसे याद नही। शहाबुद्दीन आजम खाँ, मौलाना अब्दुल्ला बुखारी, जफरयाब जिलानी की भूमिका बाबरी मस्जिद उन्माद बढ़ाने में क्या रही फिर विध्वंस के बाद क्या थी यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं।
चुनाव के समय मुस्लिम दानिशवरों व उलेमा को मिहली दर्द खूब सताता है परन्तु वक्फ सम्पत्तियों की बरबादी मुसलमानों की शैक्षिक, सामाजिक व आर्थिक बदहाली की इन्हें फिक्र नहीं मुस्लिम एकता को विखण्डित करने में इनका किरदार भला कौन नहीं जानता?
देश में अक्सर मुसलमानों के मुंह से यह सुना जाता है कि उनका कोई सियासी लीडर मुल्क में न होने के कारण ही उनकी यह हालत है। परन्तु प्रश्न यह उठता है कि देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं का इकलौता लीडर कौन है और फिर अल्पसंख्यकों का दर्जा प्राप्त सिक्ख, ईसाई, बौद्ध जैन और पारसियों का लीडर कौन है? यह सभी कौमें जिन्दगी के हर क्षेत्र में मुसलमानों से आगे हैं तो किस अकेले लीडर के बूते।
फिर उस कौम के बारे में यह कहना कि इसका कोई लीडर नहीं है यह एक गाली है इस कौम के लिए क्योंकि मुसलमानों के धर्म ग्रंथ पवित्र कुरआन के अनुसार मुलसमानों को ईश्वर का अंतिम संदेश देकर यह जिम्मेदारी उसके कंधों पर स्वयं ईश्वर ने डाल दी है कि वह पूरे संसार को इस्लाम की शिक्षा दे यानि एक मुसलमान को पूरे संसार का लीडर बना दिया गया है उसके बाद बार बार मुस्लिम लीडर की बात उठाकर मुलसमानों में हीन भावना व बेकसी का माहौल पैदा करना एक मनौवैज्ञानिक रणनीति या साजिश ही कही जायेगी।
आवश्यकता है तो केवल इस बात की कि मुलसमान अपना किरदार सुधारे और किरदार के बल पर ही अपना राजनीतिक वजन पैदा करें चूंकि बकौल मौलाना अबुल कलाम आजाद एक अच्छा मुसलमान ही एक अच्छा देशभक्त बन सकता है।

-तारिक खान

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