ग्रीस में यह वित्तीय संकट ठीक उसी तरह शुरू हुआ, जैसे अमेरिका में हुआ था। लोगों ने हैसियत से ज्यादा कर्ज लेने शुरू किए, बैंकों ने भी उदार हाथों से ऋण बांटे। ग्रीस के लोगों को कर्ज देने में जर्मनी, फ्रांस और इंग्लैंड के बैंक भी पीछे नहीं रहे। लेकिन फिर बुलबुला फूटना शुरू हुआ। अमेरिका की ही तर्ज पर वहां बैंक दिवालिया होते चले गए। किसी ने सोचा नहीं था कि मजबूत यूरो जोन का यह हाल होगा। कहां तो यूरो जोन डॉलर आधारित अर्थव्यवस्था को मात देने की सोच रहा था, और कहां ग्रीस के साथ स्पेन, पुर्तगाल, आयरलैंड, इटली आदि दूसरे देशों में भी आर्थिक बदहाली की दरार दिखाई दे रही है। ऐसे में, यूरो जोन कोशिश कर रहा है कि ग्रीस की हालत संभल जाए, नहीं तो एक सिलसिला शुरू हो जाएगा।
यूरो के गौरव से अभिभूत कुछ लोग यह भी तर्क दे रहे हैं कि ग्रीस को यूरो जोन से बाहर हो जाना चाहिए, मानो इससे यह विपत्ति टल जाएगी। ग्रीस का यह संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था की खामियों का ही खुलासा करता है। अर्थव्यवस्थाओं के एक दूसरे से जुड़े होने के लाभ हैं, तो घाटा भी कम नहीं। इसी कारण अमेरिका में हुए सब-प्राइम संकट के समय कुछ अर्थशास्त्रियों ने अर्थव्यवस्थाओं के डी-कपुलिंग यानी विच्छेदीकरण की जरूरत बताई थी, ताकि एक बीमार अर्थव्यवस्था दूसरे को बीमार न कर सके। लेकिन एक बार भूमंडलीकरण में शामिल होने के बाद उससे बाहर होना संभव नहीं है। पहले अमेरिका और अब ग्रीस का यह संकट भारत जैसे देशों के लिए सबक है। भारतीय अर्थव्यवस्था अगर भूमंडलीकरण का शिकार नहीं हुई है, तो इसकी वजह इसके ठोस फंडामेंटल्स हैं। विराट कृषि क्षेत्र, मजबूत औद्योगिक क्षेत्र, सजग बैंकिंग व्यवस्था आदि ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसा रूप दिया है, जिसमें कर्ज लेते रहने या शेयर बाजार पर पूरी तरह निर्भर हो जाने की विवशता नहीं है। फिर भी ग्रीस का संकट हमें सजग तो करता ही है।

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें