मंगलवार, 17 अक्तूबर 2023

हवा में लटके शब्द - अनूप मणि त्रिपाठी

हवा में लटके शब्द ________________________________________________ साधो,एक बड़े से सभागार के मंच पर बहुत सारे कवि सजे-धजे जमे हुए हैं। श्रोता कसमसा रहे हैं। वे रह-रहकर हिलडुल रहे हैं अर्थात जीवित हैं। यह कविता वाचन का द्वितीय सत्र चल रहा है। शब्द पक रहे हैं। सुनने वाले तप रहे हैं। कविता की नई जमीन बन रही है। लेकिन कुछ कवि उत्साह के अतिरेक्त में जमीन से पहले पर्वत ,पठार, कछार बनाने पर तुले हुए हैं। कवि दूर-दूर से आएं हैं और कविता को दूर तक ले जाना चाहते हैं। मगर उनको सुनकर लगता है कि किंचित कविता उनसे दूर जाना चाहती है। मैं कोई कपोल-कल्पित बात नहीं कर रहा हूं। मैं श्रोताओं का हाल देखकर बोल रहा हैं। देखो न! अभी जो कवि पढ़ रहा है,वो निबंध को गा-गाकर पढ़ रहा है। जिसके बारे में संचालक ने बताया था कि हाल ही में उनकी कविता की तेरहवीं किताब आई है। उनको सुनते हुए बगल में बैठा व्यक्ति कह रहा है कि इससे अच्छा तो अखबार ही पढ़ देते! साधो, जरा इस गीतकार की आंखों में तो देखो! सजल हैं। न-न वो हूट नहीं हुआ है। एक श्रोता ने मुखड़ा सुनाने की फरमाइश कर दी है। अब गीतकार क्या जाने! श्रोता का गला भरा हुआ है। कार्यक्रम के मध्यांतर में भोजन को चबाकर नहीं दबाकर खाया है। सुस्वादु भोजन,एसी की ठंडक तिस पर दुपहरिया। आ गई झपकी। निकल गया मुखड़ा । मुंह पर हाथ फेरते हुए श्रोता को कर्तव्यबोध जागा । कर दी फिर मुखड़े की फरमाइश जैसे भोजन के समय की थी रसगुल्ले की ख्वाइश। गीतकार ने श्रोता के मुखड़े पर मोहित होते हुए पुलकित भाव से अपने गीत का मुखड़ा दुबारा सुनाया। मुखड़ा सुनने के बाद श्रोता के मुंह से दाद की जगह डकार निकली। साधो, बड़ा कवि हूट होने से नहीं डरता। महान कवि सूट होने से नहीं डरता। कवि की एक श्रेणी और है। जानो! एक होता है घुटा हुआ कवि । वह अपने निर्धारित समय से डेढ़ा-दुगुना समय लेता है। वह समय का कोटा नहीं देखता है। वह मात्र अपनी कविता की मात्रा देखता है। वह जानता है कि उसके लिखने से कहीं कुछ बदलने वाला नहीं है।(अपनी कविता से वह स्वयं नहीं बदला) इसलिए वह इस जड़ समाज को कविता के रूप में अपनी खरी-खोटी सुना-सुनाकर बदला लेता है। वह अपनी सारी घुटन इस समय ही निकाल देना चाहता है। सुनने वाले का भले ही दम क्यों न घुट जाए! इससे अलग एक होता है सिर्फ कवि। यह कवि निर्धारित समय में ही काव्य पाठकर चुपचाप अपना आसन ग्रहण कर लेता है। हालांकि इस दर्जे का कवि हिंदी साहित्य में मिलना एक दुर्लभ घटना मानी जाती है। साधो,कवि की एक कोटि और है। पहले तो वो जिनकी कविता आकार में इतनी बड़ी होती है कि अंतर्वस्तु दब के मर जाती है। दूसरे वह होते हैं जो आकार में छोटी कविता लिखकर भी बड़ी कविता लिखते हैं। अभी-अभी एक किस्म और याद आई। एक वे कवि जो सिर्फ विचारधारा को जानते हैं। दूसरे वे कवि जो सिर्फ धाराप्रवाह पढ़ना जानते हैं। साधो! कालजयी रचना के बारे में हमें भ्रामक जानकारियां दी गईं हैं। और हद दर्जे तक दी गईं हैं। वस्तुतः कालजयी रचना वो जिसको सुनते हुए साक्षात काल आ जाए और जिसे सुनाते हुए कवि को न लाज आए। कवि से पूछो, 'क्यों साहब कविता के बारे में क्या खयाल है। वह छूटते ही बोलेगा कि कविता लिखना आसान नहीं। कठिन कर्म करने वाले इस कवि ने मगर कविता सुनने को दुनिया का सबसे आसान काम मान बैठा है। अपनी बारी आने पर माइक से वह ऐसे चिपकता है जैसे जूते की तली में लगा च्यूइंगम! नीरज जी की इन पक्तियों को 'आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य, मानव होना भाग्य है कवि होना सौभाग्य' शायद कुछ कवियों ने इसे बहुत सिरयसली ले लिया है और श्रोताओं को अभागा छोड़ रखा है। साधो, अभी जो कवि आया है। वह चीख रहा है। वह भूल गया कि यह कवि सम्मलेन नहीं है। यहां न चीखना चलेगा,न चुटकुला। वह चीख रहा,मगर उसकी कविता खामोश है। ऐसे में रूमी की यह बात याद आती है,'अपने शब्द उठाओ, आवाज नहीं। यह बारिश है जो फूल उगाती है, गरज नहीं। साधो, संचालक महोदय फरमाते हैं कि ऐसे सुधि पाठकों के लिए भी तालियां होनी चाहिए,जो इतनी तन्मयता के साथ कविता सुन रहे हैं। दरअस्ल इस प्रशंसा के मूल में चापलूसी छुपी हुई है। संचालक के मन में खटका बना हुआ है। कहीं बचे खुचे श्रोता भी सभागार से निकल न जाए! जबकि संचालक जानता है और बखूबी जानता है। वह अनुभवी भी है और साथ में कवि भी है। वह जानता है कविता सुनने वाले ये जो बचे खुचे श्रोता हैं, कुर्सी छोड़कर जाना भी चाहें तो नहीं जा सकते। क्योंकि ब्रेक में आयोजको द्वारा उपलब्ध कराया गए भोजन को उन्होंने खींचकर इतना खा लिया है कि उनसे अपनी सांस तक नहीं खींची जा रही! सुधी श्रोताओं ने तो लंच के बाद सीधे अपने घर की राह पकड़ ली। अभी सभागार जो कुछ श्रोता दीख रहे हैं, तो उसके लिए कविता के स्तर से ज्यादा उदरस्थ कीं गईं पूडियों की संख्या जिम्मेदार है। इतना ठेलने के बाद ' सुधी' श्रोता को कुछ सुध ही कहां! साधो, कविता सुनते-सुनते मैंने भी कविता लिख मारी है। कविता की एक और किताब आने से खुश है कवि मगर शब्द कतई खुश नहीं उनको शिकायत है वे चाहते हैं कि कविता से कभी तो कवि भी बड़ा दिखाई दे! सहसा एक प्रसंग याद आया। कविता दिखाने के बाद कवि ने एक आलोचक से पूछा कि सर आपको मेरी यह कविता कैसी लगी! 'अंतिम दो पंक्तियां हटा लो!' आलोचक ने सुझाव दिया। यह सुनते ही कवि का मुंह बन गया। जानते हो क्यों! क्योंकि कुलजमा उसकी कविता चार पक्तियों की ही थी। साधो, सभागार में एक बच्चा भी है। जो बाल सुलभ हरकतें भी कर रहा है। कविता के बीच उसकी निरंतर आवाजाही बनी हुई है । कवि की कविता से ज्यादा वह ध्यान आकृष्ट कर रहा है। बच्चे की गणित अच्छी है। इसका प्रमाण यह कि उसने अपने पापा से जोर से अभी कहा कि पापा-पापा अब बस दो पोएट सुनाने को बचे हैं बस। बच्चे के इस बयान से सुनने वालों के होठों पर देखो मुस्कान तैर गई है। साधो, जब से मोबाइल आया तब से बड़ी राहत है। कार्यक्रम के बीच में बजना शुभ माना जाता है। उधर कवि हाहाकारी समय के द्वंद का वर्णन कर रहा है, तो इधर कई श्रोता फेसबुक पर अपने टाइम लाइन में निर्द्वंद विचरण कर रहे हैं। कवि मंच से कविता सुना रहा है ,तो नीचे एक युवा अपने मित्र को मैसेज कर रहा है। 'ज्यादा वाह वाह न करो! नहीं तो ये रात भर सुनाएंगे!' उसके मित्र ने भी मैसेज का जवाब फौरन रवाना कर दिया ,' मुझे लगा कि शायद ये तब से इसीलिए सुनाए जा रहे हैं कि कोई वाह नहीं कर रहा!' किसी और के मोबाइल पर अभी यह संदेश टपका। 'व्यस्थापक महोदय! चाय की व्यवस्था है न!' जवाब आया,'हां भाई! ऐसी कविता के बाद तो चाय लाजिमी है!' सभागार में ही दो मोबाइल पर सदेशों का आदान-प्रदान कुछ यों हो रहा है,'भाई माफ करना!' 'क्या हुआ!' 'अब तक मैं तुम्हें निम्नकोटी का कवि समझता था!' 'कोटि कोटि आभार( हंसने वाले इमोजी के साथ)' मंच पर कवि भरा हुआ है भावों से और नीचे सबके मोबाइल में अपनी-अपनी रसधार बह रही है... साधो, कविता के बीच एक कहानी सुनो! एक कवि जब ईश्वर के पास पहुंचा तो उसने पूछा,'मैं यहां कैसे आया!' 'तुम्हारा दिल बैठ गया था!' उसे जवाब मिला। 'बैठने से मतलब!' 'सिंक कर गया!' 'मुझसे उम्रदराज एक से बढ़ कर एक खूसठ कवि पड़े हुए हैं, मुझे क्यों उठाया!' 'आते ही निंदा! खैर, तुम्हारे अच्छे और महान विचारों के कारण तुम्हारी यह हालत हुई है कवि महोदय!' उसे बताया गया। 'कैसे!' 'इतने अच्छे और महान विचार छोटे दिल में कैसे समा सकते थे।' कवि को जवाब मिल गया। साधो! कविताएं लिखी जाती रहेंगी।कविता पाठ चलता रहेगा! और आगे भी चलेगा! यहां नही तो कहीं और चलेगा! चलेगा और चलते रहना भी चाहिए! साहित्य,समाज,समय,संवेदना सबके लिए जरूरी है। निसंदेह हमारी वाचिक परंपरा समृद्ध रही है। यहां तक इसे 'ब्रह्म नाद' कहा गया है। वाक्,वाणी का अर्थ ही है बोलना! भारतीय वाचिक परंपरा पर बोला जाए,तो यहां पर अलग से एक लेख लिखना पड़ जाएगा! तो मैं अंतिम बात कहकर अब विराम लेता हूं! साधो,लिखकर डायरी के पन्ने फाड़ते रहो,ताकि नया अध्याय लिख सको! अनूप मणि त्रिपाठी

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